प्रस्तावना
"और यहोवा ने देखा, कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है, और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है सो निरन्तर बुरा ही होता है। और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ।"
– उत्पत्ति ६:५-६
पृथ्वी पाप से भर गई। और परमेश्वर बहुत दुःखी हुआ।“
– “आशा” अध्याय ४
ध्यान से देखें और विचार करें
पिछले पाठ में हमने इस बात पर विचार किया था कि किस प्रकार से आदम और हव्वा की आने वाली पीढ़ियों में पाप पृथ्वी पर कितनी शीघ्रता से फैलता गया। आज हम इसी सन्दर्भ में परमेश्वर की प्रतिक्रिया पर विचार करेंगे, जैसा कि में दर्ज़ किया गया है [bible version="1683" book="gen" chapter="6" verses="6"]उत्पत्ति 6:6[/bible]. लेकिन इससे पहले कि हम यह बात जानने का प्रयास करें कि इस पद के माध्यम से परमेश्वर हमसे क्या कहना चाहता है, आइए, पहले यह निर्धारित करें कि वह क्या नहीं कह रहा है।
वाक्यांश वाक्यांश, "और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया," कई रूप से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति कहे, "मुझे बहुत खेद है कि मैंने स्वयं को इस संकट में डाल दिया है।" और यह कहने का उसका तात्पर्य होगा, "काश कि मैंने वह नहीं किया होता जिस कारण मैं ऐसी स्थिति में आ गया हूँ" या फिर "अगर मुझे चीजें दोबारा से करने का एक मौका मिले तो मैं उन्हें अलग तरह से करूँगा।" क्या इसी विचारधारा का प्रयोग करते हुए हम [bible version="1683" book="gen" chapter="6" verses="6"]उत्पत्ति 6:6[/bible] को पढ़ सकते हैं और एक तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि परमेश्वर ने अपने किए पर पछतावा किया, मानो उसने कोई गलत निर्णय ले लिया हो?
नहीं, हम ऐसा निष्कर्ष कदापि नहीं निकाल सकते हैं, और इसका कारण है। क्योंकि बाइबल कभी भी स्वयं का खंडन नहीं करती है, इसलिए किसी भी पद को सदैव संपूर्ण बाइबल के प्रकाश में देखना और समझना चाहिए, और जब हम यह देखते हैं कि संपूर्ण बाइबल परमेश्वर के बारे में क्या कहती है तो हमें यह ज्ञात होता है कि:
- उसके मार्ग सिद्ध हैं ([bible version="1683" book="deu" chapter="32" verses="4"]व्यवस्थाविवरण 32:4[/bible])| मनुष्य की रचना करना कोई गलती नहीं हो सकती क्योंकि परमेश्वर गलती नहीं करता है।
- वह सब कुछ जानता है ([bible version="1683" book="psa" chapter="139" verses="16"]भजन 139:16[/bible])| आदम और हव्वा की रचना करने से पहले से ही परमेश्वर जानता था कि वह मानवजाति के पापों के कारण खेदित और दुखी होगा।
तो यह पद हमसे क्या कह रहा है? यह कहना कि परमेश्वर खेदित था और मन में दुखी था, यह दर्शाता है कि परमेश्वर में भावनाएँ हैं। बाइबल में अक्सर परमेश्वर की भावनाओं के बारे में ज़िक्र किया गया है। इस बात के उल्लेख हैं कि अलग-अलग समयों में, वह उदास ([bible version="1683" book="psa" chapter="78" verses="40"]भजन 78:40[/bible]), क्रोधित ([bible version="1683" book="deu" chapter="1" verses="37"]व्यवस्थाविवरण 1:37[/bible]), प्रसन्न ([bible version="1683" book="1ki" chapter="3" verses="10"]1 राजा 3:10[/bible]), आनन्द से मगन ([bible version="1683" book="zep" chapter="3" verses="17"]सपन्याह 3:17[/bible]), और दुखी ([bible version="1683" book="jdg" chapter="2" verses="18"]न्यायियों 2:18[/bible]). हुआ। लेकिन परमेश्वर जो अनंत है उसकी भावनाओं को कौन सही मायनों में समझ सकता है?
मूल पद में वाक्यांश "वह मन में अति खेदित हुआ," का शाब्दिक अर्थ है "वह मन से अति खेदित हुआ।" 1 दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने संसार में दुष्टता को देखा और वह "हृदय की गहराई तक दुखी हुआ।" अंग्रेजी बाइबिल का एक संस्करण (एनआईवी) इस पद का अनुवाद इस प्रकार से करता है -"उसका हृदय दुख से भर गया।" उन पदों पर मनन करें। यदि परमेश्वर अनंत है, तो वह उसके हृदय की गहराई तक कितनी अधिक होगी? उसका हृदय कितना विशाल है? परमेश्वर के हृदय को भरने के लिए कितना अधिक दुःख लगा होगा?
परमेश्वर भावुक है इस दृष्टिकोण के साथ यह भी जोड़ कर देखें कि वह सिद्ध और सर्वज्ञानी है। परमेश्वर जानता था कि मनुष्य की रचना करने के परिणामस्वरूप उसे इतना गहन दुख उठाना पड़ेगा, फिर भी उसने उसकी रचना की। और यही नहीं, उसने उसकी रचना ठीक उसी प्रकार की जैसे वह करना चाहता था। लेकिन परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया?
पाठ १३ में हमने इस बात पर अध्ययन किया था और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि परमेश्वर ऐसा कुछ भी नहीं करता है जिसमें उसका प्रेम शामिल न हो। और पाठ १५ में हमने देखा था कि परमेश्वर के पास एक सिद्ध योजना है: एक ऐसी योजना जिसका परिणाम अंततः एक ऐसा संसार होगा जिसमें कोई दुष्टता या बुराई नहीं होगी। हम संभवतः इस प्रश्न का उत्तर पूर्ण रूप से देने में सक्षम न हों कि क्यों परमेश्वर ऐसी पीड़ा सहन करने के लिए राज़ी था, किन्तु हम यह जान सकते हैं कि इसका उत्तर उसके अतुल्य प्रेम और उसकी सिद्धि योजना से जुड़ा हुआ है।
पूछें और मनन करें
परमेश्वर इतना महान है और हमारी सोच से इतना परे है, हम समझ सकते हैं कि यह कल्पना करना कठिन है कि हम कैसे ऐसा कुछ कर सकते हैं जो उसे उतनी गहराई से दुखी करें जितनी गहराई से वह तब दुखी हुआ था जब उसने संसार में दुष्टता को देखा था। किंतु पाठ २१, के कथन को स्मरण कीजिए कि “असीम परमेश्वर के विरुद्ध छोटे से छोटे पाप का भी असीम परिणाम होता है।" तो क्या हम यह भी निष्कर्ष नहीं निकल सकते हैं कि एक सबसे छोटा पाप भी परमेश्वर को उस प्रकार दुखी करता है जिस प्रकार हम समझ भी नहीं सकते।
क्या यह परमेश्वर को देखने के आपके दृष्टिकोण को बदलता है जब आप उसे भावनाएँ रखने वाले के रूप में विचारते हैं? यदि हाँ, तो कैसे?
- इस बात का आपके लिए क्या तात्पर्य है कि परमेश्वर मानवजाति की रचना करने के लिए राज़ी था, यद्यपि वह जानता था कि इसके परिणामस्वरूप उसे कैसी पीड़ा को सहन करना पड़ेगा?
निर्णय लें और करें
कुछ लोग अपना सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर की उपेक्षा करते हुए व्यतीत कर देते हैं। कुछ लोग बस उन बातों पर खरा उतरने का प्रयास करने में लगे रहते है जो वे सोचते हैं कि परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है। लेकिन कुछ लोग इससे अधिक चाहते हैं। वे परमेश्वर के हृदय को जानना और आनंदित करना चाहते हैं। जितना अधिक आप किसी को जानेंगे, उतना ही अधिक आप जान पाएँगे कि वह क्या है जो उनके हृदय को आनंदित करता है। आप परमेश्वर के हृदय को कितनी अच्छी तरह जानते हैं? क्या आप उसे इतनी अच्छी तरह जानते हैं कि आपको पता हो कि वह क्या है जो उसके हृदय को आनंदित करता है? यदि नहीं, तो परमेश्वर को अपनी यह इच्छा बताएँ कि आप उसे और अधिक जानना चाहते हैं और उसे आनंदित करना चाहते हैं।
अधिक अध्ययन करने के लिए पढ़ें
- William A. Simmons, Grief, Grieving. (From Baker’s Evangelical Dictionary of Biblical Theology, 1996 by Walter A. Elwell). (http://www.biblestudytools.com/dictionaries/bakers-evangelical-dictionary/grief-grieving.html). Retrieved October 6, 2006.
Footnotes
1Lexicon and Strong’s Concordance Results for ‘el (Strong’s 0413), from The Blueletter Bible, 1996–2002. (http://www.blueletterbible.org/cgi–bin/strongs.pl?book=&chapter=&verse=&language=H&strongs=0413). Retrieved on October 6, 2006.